हरि ॐ

अथर्ववेद (Atharvaved)

अथर्ववेद 11.7.12

कांड 11 → सूक्त 7 → मंत्र 12 - संस्कृत मंत्र, हिंदी अर्थ और English translation

अथर्ववेद (कांड 11)

अथर्ववेद: | सूक्त: 7
अ॑भि॒क्रन्द॑न्स्त॒नय॑न्नरु॒णः शि॑ति॒ङ्गो बृ॒हच्छेपोऽनु॒ भूमौ॑ जभार । ब्र॑ह्मचा॒री सि॑ञ्चति॒ सानौ॒ रेतः॑ पृथि॒व्यां तेन॑ जीवन्ति प्र॒दिश॒श्चत॑स्रः ॥ (१२)
मेघों में गर्जन करता हुआ, जल पूर्ण मेघ को प्राप्त वह ब्रह्मचारी वरुण बन कर अपने जलरूपी वीर्य को ऊंचे स्थानों पर बरसाता है. उस जल से धरती पर चारों दिशाएं प्राणियों को धारण करती हैं. (१२)
Roaring in the clouds, he becomes a brahmachari Varuna, who attains the full cloud of water, and showers his water-like semen in high places. With that water, the four directions on the earth hold the creatures. (12)