अथर्ववेद (कांड 13)
यं वातः॑ परि॒शुम्भ॑ति॒ यं वेन्द्रो॒ ब्रह्म॑ण॒स्पतिः॑ । ब्रह्मे॑द्धाव॒ग्नी ई॑जाते॒ रोहि॑तस्य स्व॒र्विदः॑ ॥ (५१)
वायु, इंद्र तथा ब्रह्मणस्पति जिस पुरुष को सुशोभित करना चाहते हैं, वे पुरुष ही सूर्यात्मक स्वर्ग की प्राप्ति की कामना करते हुए मंत्रों द्वारा बढ़ी हुई अग्नि की पूजा करते हैं. (५१)
The man whom Vayu, Indra and Brahmanaspati want to beautify worship the increased agni by mantras, wishing for the attainment of a sun-filled heaven. (51)