अथर्ववेद (कांड 17)
अद॑ब्धो दि॒विपृ॑थि॒व्यामु॒तासि॒ न त॑ आपुर्महि॒मान॑म॒न्तरि॑क्षे । अ॑दब्धेन॒ ब्रह्म॑णावावृधा॒नः स त्वं न॑ इन्द्र दि॒वि षञ्च्छर्म॑ यच्छ॒ तवेद्वि॑ष्णो बहु॒धावी॒र्याणि । त्वं नः॑ पृणीहि प॒शुभि॑र्वि॒श्वरू॑पैः सु॒धायां॑ मा धेहि पर॒मे व्योमन् ॥ (१२)
हे इंद्र! तुम ह्युलोक अर्थात् स्वर्ग में तथा पृथ्वी पर किसी के द्वारा हिंसित नहीं हो. तात्पर्य यह है कि इन दोनों स्थानों पर कोई भी तुम्हारा विरोध करने का साहस नहीं करता है. आकाश में तुम्हारी महिमा को सहन करने में कोई समर्थ नहीं है. जिस की सामर्थ्य कुंठित नहीं होती है, ऐसे मंत्रों के द्वारा वृद्धि प्राप्त करते हुए तुम हमारी रक्षा करो. हे व्यापक इंद्र! तुम्हारे वीर्य अर्थात् शक्तियां अनंत हैं. तुम हमें गाय, घोड़ा आदि अनेक रूपों वाले पशुओं से पूर्ण करो तथा परम व्योम में जो सुधा है, उस में हमें स्थापित करो. (१२)
O Indra! You are not condemned by anyone in hell and on earth. The implication is that no one dares to oppose you in these two places. No one is able to bear your glory in the sky. Protect us by attaining growth through such mantras whose power is not frustrated. O broad Indra! Your semen i.e. powers are infinite. May you complete us with animals of many forms like cows, horses, etc. and establish us in the good that is in the Supreme Vyom. (12)