अथर्ववेद (कांड 17)
उदि॒ह्युदि॑हिसूर्य॒ वर्च॑सा मा॒भ्युदि॑हि । द्वि॒षंश्च॒ मह्यं॒ रध्य॑तु॒ मा चा॒हं द्वि॑ष॒तेर॑धं॒ तवेद्वि॑ष्णो बहु॒धा वी॒र्याणि । त्वं नः॑ पृणीहि प॒शुभि॑र्वि॒श्वरू॑पैःसु॒धायां॑ मा धेहि पर॒मे व्योमन् ॥ (६)
हे सूर्य देव! आप उदित हैं और उदित हो कर अपने तेज से मुझे प्रकाशित करें. जो लोग मुझ से द्वेष करते हैं. वे मेरे वश में हो जाएं. मैं किसी भी प्रकार उन के वशीभूत न बनू, हे व्यापनशील सूर्य देव! आप का पराक्रम सीमारहित है आप मुझे अमुक रूपों वाले अर्थात् गाय, घोड़ा, भेस आदि पशुओं से पूर्ण करं तथा परमव्योम में जो अमृत है, उस में मुझे स्थापित करें. (६)
O Sun God! You are up and rise and publish to me with your speed. People who hate me. Let them be in my control. I will not be subjugated to them in any way, O Swami of the inhabited Sun! Your might is limitless, you complete me with animals like cow, horse, disguise etc. in such forms and establish me in the nectar that is in the supreme soul. (6)