हरि ॐ

अथर्ववेद (Atharvaved)

अथर्ववेद 18.1.33

कांड 18 → सूक्त 1 → मंत्र 33 - संस्कृत मंत्र, हिंदी अर्थ और English translation

अथर्ववेद (कांड 18)

अथर्ववेद: | सूक्त: 1
किं स्वि॑न्नो॒राजा॑ जगृहे॒ कद॒स्याति॑ व्र॒तं च॑कृमा॒ को वि वे॑द । मि॒त्रश्चि॒द्धि ष्मा॑जुहुरा॒णो दे॒वाञ्छ्लोको॒ न या॒तामपि॒ वाजो॒ अस्ति॑ ॥ (३३)
देवताओं में क्षत्रिय संबंधी शक्ति वाले यम हमारे हव्य का कुछ भाग ग्रहण करें. कहीं हम से उस कार्य का अतिक्रमण हो गया जो यम को प्रसन्न करने में सक्षम है तो यहां देवों का आह्वान करने वाले अग्नि विराजमान हैं. वे ही हमारे अपराध को दूर करेंगे. हमारे पास स्तुति ह समान हवि भी है. उस के द्वारा हम अग्नि को संतुष्ट कर के यम के अपराध से छूट सकते ं. (३३)
Yama, who has kshatriya-related power in the deities, should take some part of our havya. Somewhere we have encroached upon the work that is capable of pleasing Yama, so there is a agni that invokes the gods. They will remove our crime. We have the same amount of praise. Through that we can satisfy the agni and get rid of yama's crime. (33)