हरि ॐ

अथर्ववेद (Atharvaved)

अथर्ववेद 2.12.1

कांड 2 → सूक्त 12 → मंत्र 1 - संस्कृत मंत्र, हिंदी अर्थ और English translation

अथर्ववेद (कांड 2)

अथर्ववेद: | सूक्त: 12
द्यावा॑पृथि॒वी उ॒र्व॑१न्तरि॑क्षं॒ क्षेत्र॑स्य॒ पत्न्यु॑रुगा॒योऽद्भु॑तः । उ॑ता॒न्तरि॑क्षमु॒रु वात॑गोपं॒ त इ॒ह त॑प्यन्तां॒ मयि॑ त॒प्यमा॑ने ॥ (१)
द्यावा और पृथ्वी के मध्य विस्तृत अंतरिक्ष विद्यमान है. इन तीनों लोकों के अधिपति देव क्रमशः अग्नि, वायु और सूर्य हैं. ये अद्भुत एवं महापुरुषों द्वारा प्रशंसित विष्णु, ब्रह्मांड में व्याप्त, आकाश, लोक एवं लोकाधिपति हैं. मुझ अभिचारकर्ता के दीक्षा नियमों के कारण संतप्त होने पर संतप्त हों. तात्पर्य यह है कि जिस प्रकार मैं अपने शत्रु के विनाश हेतु तत्पर हूं, उसी प्रकार ये देव भी उस के हिंसक बनें. (१)
There is wide space between the earth and the earth. The ruling deities of these three worlds are agni, air and sun respectively. He is the wonderful and admired Vishnu, the universe, the sky, the world and the people. Be angry when I am angry due to the initiation rules of the preacher. The meaning is that just as I am ready to destroy my enemy, so should these gods also become violent with him. (1)