अथर्ववेद (कांड 2)
अती॑व॒ यो म॑रुतो॒ मन्य॑ते नो॒ ब्रह्म॑ वा॒ यो निन्दि॑षत्क्रि॒यमा॑णम् । तपूं॑षि॒ तस्मै॑ वृजि॒नानि॑ सन्तु ब्रह्म॒द्विषं॒ द्यौर॑भि॒संत॑पाति ॥ (६)
हे मरुतो! जो शत्रु अपनेआप को हम से अधिक शक्तिशाली मानता है अथवा जो हमारे द्वारा किए जाने वाले मंत्र संबंधी कर्म की निंदा करता है, उस के लिए संतापकारी आयुध बाधक हों. मेरे कर्म से द्वेष करने वाले को द्यौ संताप दे. (६)
O Maruto! For the enemy who considers himself more powerful than us or who condemns the mantra-related deeds we do, should be an angry armament barrier. Give anger to those who hate my deeds. (6)