हरि ॐ
अथर्ववेद (Atharvaved)
अथर्ववेद (कांड 20)
तव॒ त्यदि॑न्द्रि॒यं बृ॒हत्तव॒ शुष्म॑मु॒त क्रतु॑म् । वज्रं॑ शिशाति धि॒षणा॒ वरे॑ण्यम् ॥ (१)
हे इंद्र! तुम्हारा बल बुद्धि से वरण करने योग्य है. तुम्हारा बल कर्मरूपी वज्र को तीव्र करता है. (१)
O Indra! Your strength is worthy of selection with intelligence. Your force intensifies the karma-like thunderbolt. (1)
अथर्ववेद (कांड 20)
तव॒ द्यौरि॑न्द्र॒ पौंस्यं॑ पृथि॒वी व॑र्धति॒ श्रवः॑ । त्वामापः॒ पर्व॑तासश्च हिन्विरे ॥ (२)
हे इंद्र! आकाश तुम्हारा वीर्य है तथा जल और पर्वत तुम्हें प्रेरणा देते हैं. पृथ्वी तुम्हारे द्वारा ही अन्न की वृद्धि करती है. (२)
O Indra! The sky is your semen and water and mountains inspire you. The earth grows food through you. (2)
अथर्ववेद (कांड 20)
त्वां विष्णु॑र्बृ॒हन्क्षयो॑ मि॒त्रो गृ॑णाति॒ वरु॑णः । त्वां शर्धो॑ मद॒त्यनु॒ मारु॑तम् ॥ (३)
हे इंद्र! सूर्य, वरुण, यम और विष्णु तुम्हारे प्रशंसक हैं. वायु के पीछे चलने वाला दल तुम्हें हर्ष प्रदान करता है. (३)
O Indra! Surya, Varuna, Yama and Vishnu are your admirers. The team that runs behind the wind gives you joy. (3)