हरि ॐ

अथर्ववेद (Atharvaved)

अथर्ववेद (कांड 20)

अथर्ववेद: | सूक्त: 112
यद॒द्य कच्च॑ वृत्रहन्नु॒दगा॑ अ॒भि सू॑र्य । सर्वं॒ तदि॑न्द्र ते॒ वशे॑ ॥ (१)
हे सूर्य की उपासना करने वाले इंद्र! तुम ने वृत्र असुर का नाश किया था. तुम जिस समय नंदित होते हो, वह समय तुम्हारे ही अधीन है. (१)
O Indra, who worships the sun! You destroyed the vritra asura. The time when you are nanded is under you. (1)

अथर्ववेद (कांड 20)

अथर्ववेद: | सूक्त: 112
यद्वा॑ प्रवृद्ध सत्पते॒ न म॑रा॒ इति॒ मन्य॑से । उ॒तो तत्स॒त्यमित्तव॑ ॥ (२)
हे इंद्र! तुम जिस की यह मृत्यु चाहते हो, यह कामना सत्य हो जाती है. (२)
O Indra! The person whose death you want, this wish becomes true. (2)

अथर्ववेद (कांड 20)

अथर्ववेद: | सूक्त: 112
ये सोमा॑सः परा॒वति॒ ये अ॑र्वा॒वति॑ सुन्वि॒रे । सर्वां॒स्ताँ इ॑न्द्र गच्छसि ॥ (३)
जो सोमरस समीप अथवा दूर कहीं भी संस्कारित किया जाता है, उस के समीप इंद्र स्वयं पहुंच जाते हैं. (३)
Indra himself reaches near the someras which is cultured anywhere near or far away. (3)