हरि ॐ

अथर्ववेद (Atharvaved)

अथर्ववेद 4.30.2

कांड 4 → सूक्त 30 → मंत्र 2 - संस्कृत मंत्र, हिंदी अर्थ और English translation

अथर्ववेद (कांड 4)

अथर्ववेद: | सूक्त: 30
अ॒हं राष्ट्री॑ सं॒गम॑नी॒ वसू॑नां चिकि॒तुषी॑ प्रथ॒मा य॒ज्ञिया॑नाम् । तां मा॑ दे॒वा व्य॑दधुः पुरु॒त्रा भूरि॑स्थात्रां॒ भूर्या॑वे॒शय॑न्तः ॥ (२)
मैं ही दिखाई देने वाले विश्व का नियंत्रण करने वाली, उपासकों को फल के रूप में धन दिलाने वाली, परब्रह्म का साक्षात्कार करने वाली तथा यज्ञ के योग्य देवों में प्रमुख हूं. अनेक भाग से प्रपंचों में स्थित मुझ को उपासकों को फल देने वाले देव बहुत से साधनों में निर्धारित करते हैं. (२)
I am the one who controls the visible world, who gives wealth to the worshipers as a fruit, who interviews the Supreme Brahman and is the worthy god of yajna. The god who gives fruits to the worshipers determines me, who is located in prapanchas from many parts, in many means. (2)