अथर्ववेद (कांड 5)
हिर॑ण्यवर्णा सु॒भगा॒ हिर॑ण्यकशिपुर्म॒ही । तस्यै॒ हिर॑ण्यद्राप॒येऽरा॑त्या अकरं॒ नमः॑ ॥ (१०)
यह सुनहरे रंग वाली पृथ्वी व्याप्ति के कारण हिरण्यकश्यप के वश में हो कर समृद्धहीन हो गई थी. यह असमृद्धि रमणीयता का विनाश करती है. मैं इस को नमस्कार करता हूं. (१०)
This golden colored earth had become rich due to the influence of Hiranyakashyap. This unbreakableness destroys delightfulness. I salute this. (10)