हरि ॐ

अथर्ववेद (Atharvaved)

अथर्ववेद (कांड 6)

अथर्ववेद: | सूक्त: 71
यदन्न॒मद्मि॑ बहु॒धा विरू॑पं॒ हिर॑ण्य॒मश्व॑मु॒त गाम॒जामवि॑म् । यदे॒व किं च॑ प्रतिज॒ग्रहा॒हम॒ग्निष्टद्धोता॒ सुहु॑तं कृणोतु ॥ (१)
भूख की पीड़ा के वशीभूत हो कर मैं विविध प्रकार का जो अन्न अनेक प्रकार से खाता हूं, अन्न के अतिरिक्त मैं दरिद्रता के कारण जो सोना, घोड़े और गाएं ग्रहण करता हूं, मुझ यजमान को वह सब अन्न, सोना आदि अग्नि देव भली प्रकार हवन किया हुआ बनाएं. (१)
Under the pain of hunger, I eat various types of food in many ways, in addition to the food, the gold, horses and cows I take due to poverty, make my host all the food, gold etc. (1)

अथर्ववेद (कांड 6)

अथर्ववेद: | सूक्त: 71
यन्मा॑ हु॒तमहु॑तमाज॒गाम॑ द॒त्तं पि॒तृभि॒रनु॑मतं मनु॒ष्यैः । यस्मा॑न्मे॒ मन॒ उदि॑व॒ रार॑जीत्य॒ग्निष्टद्धोता॒ सुहु॑तं कृणोतु ॥ (२)
होम के द्वारा संस्कार वाला और इस से विपरीत जो धन मुझे प्राप्त हुआ है, वह पितृ देवों द्वारा मुझे उपभोग के लिए दिया गया है. मनुष्यों ने उस के उपभोग की अनुमति दी है. जिस धन के कारण मेरा मन हर्ष की अधिकता से उद्दीप्त रहता है, अग्नि देव की कृपा से वह धन मुझ यजमान के लिए दोषरहित हो. (२)
The wealth that I have received from the sacrament through the home and vice versa has been given to me by the father gods for consumption. Humans have allowed the consumption of it. The wealth due to which my mind is stimulated by the excess of joy, by the grace of Agni Dev, that money should be blameless for me. (2)

अथर्ववेद (कांड 6)

अथर्ववेद: | सूक्त: 71
यदन्न॒मद्म्यनृ॑तेन देवा दा॒स्यन्नदा॑स्यन्नु॒त सं॑गृ॒णामि॑ । वै॑श्वान॒रस्य॑ मह॒तो म॑हि॒म्ना शि॒वं मह्यं॒ मधु॑मद॒स्त्वन्न॑म् ॥ (३)
हे देवो! असत्य भाषण के द्वारा दूसरों का जो अन्न अपहरण कर के मैं खाता हूं, उसे मैं अन्न के मालिक को चाहे देता रहा हूं अथवा नहीं देता रहा हूं, पर मैं उसे देने की प्रतिज्ञा करता हूं. वैश्वानर देव की अत्यधिक महिमा से वह अन्न मेरे लिए सुखकर और मधुर हो. (३)
O God! I may or may not have been giving the food that I have been giving to the owner of the food, but I promise to give it to him. May that food be happy and sweet for me with the immense glory of Vaishvanar Dev. (3)