हरि ॐ

अथर्ववेद (Atharvaved)

अथर्ववेद (कांड 6)

अथर्ववेद: | सूक्त: 95
अ॑श्व॒त्थो दे॑व॒सद॑नस्तृ॒तीय॑स्यामि॒तो दि॒वि । तत्रा॒मृत॑स्य॒ चक्ष॑णं दे॒वाः कुष्ठ॑मवन्वत ॥ (१)
तीसरे आकाश में देवों का स्थान पीपल है. वहां देवों ने अमृत के गुण वाले वनस्पति कूठ को जाना. (१)
In the third sky, the place of gods is Peepal. There the gods came to know the vegetable kutha with the quality of nectar. (1)

अथर्ववेद (कांड 6)

अथर्ववेद: | सूक्त: 95
हि॑र॒ण्ययी॒ नौर॑चर॒द्धिर॑ण्यबन्धना दि॒वि । तत्रा॒मृत॑स्य॒ पुष्पं॑ दे॒वाः कुष्ठ॑मवन्वत ॥ (२)
देवों ने सोने के बंधनों वाली स्वर्ग की नाभि के द्वारा कूठ वनस्पति को प्राप्त किया, जो अमृत का पुरुष है. (२)
The devas attained the kooth vegetation through the navel of heaven with gold bonds, which is the man of nectar. (2)

अथर्ववेद (कांड 6)

अथर्ववेद: | सूक्त: 95
गर्भो॑ अ॒स्योष॑धीनां॒ गर्भो॑ हि॒मव॑तामु॒त । गर्भो॒ विश्व॑स्य भू॒तस्ये॒मं मे॑ अग॒दं कृ॑धि ॥ (३)
हे अग्नि! तुम वर्षा से उत्पन्न होने वाली वनस्पतियों के भीतर स्थित हो तथा शीतल स्पर्श वाली वनस्पतियों में भी स्थित हो. तुम संसार के सभी प्राणियों में स्थित हो. तुम मेरे इस मनुष्य को रोग रहित बनाओ. (३)
O agni! You are situated within the vegetation arising from the rain and also in the vegetation with a cold touch. You are located in all beings of the world. You make this man of mine disease-free. (3)