हरि ॐ

अथर्ववेद (Atharvaved)

अथर्ववेद 9.5.35

कांड 9 → सूक्त 5 → मंत्र 35 - संस्कृत मंत्र, हिंदी अर्थ और English translation

अथर्ववेद (कांड 9)

अथर्ववेद: | सूक्त: 5
यो वा उ॒द्यन्तं॒ नाम॒र्तुं वेद॑ । उ॑द्यतीमु॑द्यतीमे॒वाप्रि॑यस्य॒ भ्रातृ॑व्यस्य॒ श्रिय॒मा द॑त्ते । ए॒ष वा उ॒द्यन्नाम॒र्तुर्यद॒जः पञ्चौ॑दनः । निरे॒वाप्रि॑यस्य॒ भ्रातृ॑व्यस्य॒ श्रियं॑ दहति॒ भव॑त्या॒त्मना॒ यो॒जं पञ्चौ॑दनं॒ दक्षि॑णाज्योतिषं॒ ददा॑ति ॥ (३५)
जो उद्यंती नाम की ऋतु को जानता है, वह अपने अप्रिय शत्रुओं और बांधवों की संपत्ति को ग्रहण करता है. वह समझता है कि यह पंचौदन रूप अज ही उद्यंती नाम की ऋतु है. जो दक्षिणा से प्रकाशित अज को पंचौदन के रूप में देता है, वह अपने अप्रिय शत्रुओं एवं बांधवों के ऐश्वर्य को अपने तेज से जला डालता है. (३५)
One who knows the season named Udyanti takes the property of his unpleasant enemies and brothers. He understands that this Panchaudan form is a season called Udyanti. He who gives the aj illuminated from dakshina in the form of Panchodan, he burns the opulence of his unpleasant enemies and brothers with his glory. (35)