ऋग्वेद (मंडल 1)
दि॒वो न यस्य॒ रेत॑सो॒ दुघा॑नाः॒ पन्था॑सो॒ यन्ति॒ शव॒साप॑रीताः । त॒रद्द्वे॑षाः सास॒हिः पौंस्ये॑भिर्म॒रुत्वा॑न्नो भव॒त्विन्द्र॑ ऊ॒ती ॥ (३)
जिसकी बलयुक्त एवं दूसरों द्वारा अप्राप्य किरणें सूर्य के समान आकाश में वर्षा के जल को गिराती हुई इधर-उधर फैलती हैं, वे ही जितशत्रु एवं शक्ति द्वारा शत्रुओं को पराजित करने वाले इंद्र मरुतों के सहयोग से हमारे रक्षक बनें. (३)
Those whose powerful and unattainable rays from others spread around in the sky like the sun dropping rain water, they become our protectors with the help of indra maruts who defeated enemies by jitshatru and shakti. (3)