ऋग्वेद (मंडल 1)
क्रत्वा॒ यद॑स्य॒ तवि॑षीषु पृ॒ञ्चते॒ऽग्नेरवे॑ण म॒रुतां॒ न भो॒ज्ये॑षि॒राय॒ न भो॒ज्या॑ । स हि ष्मा॒ दान॒मिन्व॑ति॒ वसू॑नां च म॒ज्मना॑ । स न॑स्त्रासते दुरि॒ताद॑भि॒ह्रुतः॒ शंसा॑द॒घाद॑भि॒ह्रुतः॑ ॥ (५)
वायु द्वारा मेघों से वर्षा किए जाने पर जिस प्रकार सभी अन्न समान रूप से पकते हैं अथवा याचक को जिस प्रकार सभी भक्षणीय द्रव्य दिए जाते हैं, उसी प्रकार यजमान अग्नि को तृप्त करने के लिए उसकी ज्वालाओं में पुरोडाश आदि द्रव्य मिलाते हैं. यजमान अपने धन के अनुसार हव्य देता है. अग्नि हमें दुःखद एवं हिंसक पाप से बचावें. (५)
Just as all the grains cook evenly when the air rains from the clouds or all the devourable substances are given to the yachak, so the hosts add the liquids etc. to the flames of the fire to satisfy it. The host gives the havya according to his wealth. May fire protect us from tragic and violent sin. (5)