ऋग्वेद (मंडल 1)
कृ॒ष्ण॒प्रुतौ॑ वेवि॒जे अ॑स्य स॒क्षिता॑ उ॒भा त॑रेते अ॒भि मा॒तरा॒ शिशु॑म् । प्रा॒चाजि॑ह्वं ध्व॒सय॑न्तं तृषु॒च्युत॒मा साच्यं॒ कुप॑यं॒ वर्ध॑नं पि॒तुः ॥ (३)
अग्नि की माता के समान काले दोनों काष्ठ जलते हैं एवं समान कार्य करते हुए अग्नि को उस प्रकार प्राप्त करते हैं, जिस प्रकार माता शिशु को. वह शिशु रूप अग्ने पूर्वाभिमुख, जिह्वा वाला, तम विनाशक, शीघ्र उत्पन्न काष्ठ से शनै:-शनैः मिलने वाला, रक्षणीय एवं पालक यजमान का वर्द्धक है. (३)
Like the mother of fire, both the woods burn and do the same work and get the fire in the same way as the mother and the baby. The infant form is facing east, tongue-in-cheek, most destructive, quick-to-produce wood. (3)