ऋग्वेद (मंडल 1)
त्वं ताँ अ॑ग्न उ॒भया॒न्वि वि॒द्वान्वेषि॑ प्रपि॒त्वे मनु॑षो यजत्र । अ॒भि॒पि॒त्वे मन॑वे॒ शास्यो॑ भूर्मर्मृ॒जेन्य॑ उ॒शिग्भि॒र्नाक्रः ॥ (७)
हे यज्ञ के योग्य अग्नि! तुम यज्ञ करने वाले एवं न करने वाले दोनों को जानते हुए यज्ञकर्ताओं की ही कामना करी. हे आक्रमणकारी अग्नि! यज्ञ की अभिलाषा करने वाले यजमान को जिस प्रकार ऋत्विज् शिक्षा देते हैं, उसी प्रकार तुम यजमान की शिक्षा के पात्र बनो. (७)
O fire worthy of yajna! You wished for the yajnakars, knowing both the yagyas and the ones who did not. O invading fire! Just as the ritwijs teach the host who desires to perform the yajna, so be worthy of the host's teaching. (7)