हरि ॐ

ऋग्वेद (Rigved)

ऋग्वेद 1.31.5

मंडल 1 → सूक्त 31 → श्लोक 5 - संस्कृत मंत्र, हिंदी अर्थ और English translation

ऋग्वेद (मंडल 1)

ऋग्वेद: | सूक्त: 31
त्वम॑ग्ने वृष॒भः पु॑ष्टि॒वर्ध॑न॒ उद्य॑तस्रुचे भवसि श्र॒वाय्यः॑ । य आहु॑तिं॒ परि॒ वेदा॒ वष॑ट्कृति॒मेका॑यु॒रग्रे॒ विश॑ आ॒विवा॑ससि ॥ (५)
हे अग्नि! तुम अभिलाषाओं को पूर्ण करने वाले हो एवं यजमान को धन आदि से पुष्ट करते हो. हे एकमात्र अन्नदाता! जो यजमान यज्ञपात्र उठाते हुए तुम्हारा यश गाता है एवं वषट्कार शब्द के साथ तुम्हें आहुति देता है, तुम उसे पहले प्रकाश देते हो, उसके बाद सारे संसार को. (५)
O agni! You are the one who fulfills the desires and reinforces the host with money, etc. O the only giver! The host who sings your praises while picking up the sacrificial pot and offering you with the word 'vashatkar', you give him light first, then to the whole world. (5)