हरि ॐ

ऋग्वेद (Rigved)

ऋग्वेद (मंडल 1)

ऋग्वेद: | सूक्त: 54
मा नो॑ अ॒स्मिन्म॑घवन्पृ॒त्स्वंह॑सि न॒हि ते॒ अन्तः॒ शव॑सः परी॒णशे॑ । अक्र॑न्दयो न॒द्यो॒३॒॑ रोरु॑व॒द्वना॑ क॒था न क्षो॒णीर्भि॒यसा॒ समा॑रत ॥ (१)
हे धन के स्वामी इंद्र! इस पाप में एवं पाप के परिणाम रूप युद्ध में हमें मत फंसाओ, क्योंकि कोई भी तुम्हारी शक्ति का अतिक्रमण नहीं कर सकता. अंतरिक्ष में वर्तमान तुम महती ध्वनि करते हुए नदी के जल को शब्दायमान कर देते हो तो फिर पृथ्वी भय से क्यों न कांपे? (१)
O Lord of wealth Indra! Do not trap us in this sin and in war as a result of sin, for no one can encroach upon your power. At present in space, you make a great sound and make a sound and verbalize the water of the river, so why doesn't the earth tremble with fear? (1)

ऋग्वेद (मंडल 1)

ऋग्वेद: | सूक्त: 54
अर्चा॑ श॒क्राय॑ शा॒किने॒ शची॑वते श‍ृ॒ण्वन्त॒मिन्द्रं॑ म॒हय॑न्न॒भि ष्टु॑हि । यो धृ॒ष्णुना॒ शव॑सा॒ रोद॑सी उ॒भे वृषा॑ वृष॒त्वा वृ॑ष॒भो न्यृ॒ञ्जते॑ ॥ (२)
हे अध्वर्युजन! शक्तिशाली एवं बुद्धिमान्‌ इंद्र की पूजा करो. वे सबकी स्तुतियां सुनते हैं, इसलिए उनकी स्तुति करो. जो इंद्र अपने शत्रुनाशक बल से धरती और आकाश को सुशोभित करते हैं, वे वर्षा करने में समर्थ हैं एवं वर्षा के द्वारा हमारी इच्छाओं को पूरा करते हैं. (२)
O observation! Worship the mighty and wise Indra. They hear the praises of all, so praise them. The Indras who beautify the earth and the sky with their hostile force are able to rain and fulfill our desires through rain. (2)

ऋग्वेद (मंडल 1)

ऋग्वेद: | सूक्त: 54
अर्चा॑ दि॒वे बृ॑ह॒ते शू॒ष्यं१॒॑ वचः॒ स्वक्ष॑त्रं॒ यस्य॑ धृष॒तो धृ॒षन्मनः॑ । बृ॒हच्छ्र॑वा॒ असु॑रो ब॒र्हणा॑ कृ॒तः पु॒रो हरि॑भ्यां वृष॒भो रथो॒ हि षः ॥ (३)
इंद्र का मन शत्रुविजय के प्रति दृढनिश्चयी है. हे स्तोताओ! उन्हीं दीप्तिशाली, महान्‌, प्रभूत यशस्वी एवं शक्तिसंपन्न इंद्र के प्रति स्तुतिवचनों का उच्चारण करो. वे इंद्र शत्रुनाशक, अश्चों द्वारा सेवित, कामनाएं पूर्ण करने वाले एवं वेगवान्‌ हैं. (३)
Indra's mind is determined towards enemy victory. O stotao! Recite praises to the same glorious, great, accomplished and powerful Indra. He is the destroyer of Indra's enemy, serviced by ashchas, fulfilling desires and speedy. (3)

ऋग्वेद (मंडल 1)

ऋग्वेद: | सूक्त: 54
त्वं दि॒वो बृ॑ह॒तः सानु॑ कोप॒योऽव॒ त्मना॑ धृष॒ता शम्ब॑रं भिनत् । यन्मा॒यिनो॑ व्र॒न्दिनो॑ म॒न्दिना॑ धृ॒षच्छि॒तां गभ॑स्तिम॒शनिं॑ पृत॒न्यसि॑ ॥ (४)
हे इंद्र! तुमने विशाल आकाश के ऊपर उठा हुआ प्रदेश कंपित कर दिया था एवं शत्रुनाशक शक्ति द्वारा शंबर असुर का वध किया था. तुमने हर्षित एवं प्रगल्भ मन से तेज धार वाले तथा चमकीले वञ्र को मायावी असुर समूह की ओर चलाया था. (४)
O Indra! You had vibrated the land that had risen above the vast sky and killed the Shambar Asura with the destructive force. You led the joyful and cheerful mind to the bright-edged and bright vanwar towards the elusive Asura group. (4)

ऋग्वेद (मंडल 1)

ऋग्वेद: | सूक्त: 54
नि यद्वृ॒णक्षि॑ श्वस॒नस्य॑ मू॒र्धनि॒ शुष्ण॑स्य चिद्व्र॒न्दिनो॒ रोरु॑व॒द्वना॑ । प्रा॒चीने॑न॒ मन॑सा ब॒र्हणा॑वता॒ यद॒द्या चि॑त्कृ॒णवः॒ कस्त्वा॒ परि॑ ॥ (५)
हे इंद्र! तुम वायु के तथा जल सोखने वाले एवं फलों को पकाने वाले सूर्य के ऊपर वाले प्रदेश में जल बरसाते हो. हे दृढ़ निश्चय एवं शत्रुविनाशक हृदय वाले इंद्र! आज आपने पराक्रम दिखाया है, उससे स्पष्ट है कि आपसे बढ़कर कोई नहीं है. (५)
O Indra! You are raining water in the region above the sun that absorbs air and absorbs water and cooks fruits. O Indra with determination and an anti-hostile heart! Today you have shown valour, it is clear that there is no one better than you. (5)

ऋग्वेद (मंडल 1)

ऋग्वेद: | सूक्त: 54
त्वमा॑विथ॒ नर्यं॑ तु॒र्वशं॒ यदुं॒ त्वं तु॒र्वीतिं॑ व॒य्यं॑ शतक्रतो । त्वं रथ॒मेत॑शं॒ कृत्व्ये॒ धने॒ त्वं पुरो॑ नव॒तिं द॑म्भयो॒ नव॑ ॥ (६)
हे शतक्रतु! तुमने नर्य, तुर्वश, यदु एवं वय्य कुल में उत्पन्न तुर्वीति नामक राजाओं की रक्षा की है. तुमने धन प्राप्ति के उद्देश्य से प्रारंभ संग्राम में रथ एवं एतश ऋषियों की रक्षा की तथा शंबर असुर के निन्यानवे नगरों का ध्वंस किया है. (६)
O century! You have protected the kings of Narya, Turvash, Yadu and Turvati, who were born in the Vyaya family. You have protected the chariots and sages in the struggle that began with the aim of gaining money and have destroyed the ninety-nine cities of SambarAsura. (6)

ऋग्वेद (मंडल 1)

ऋग्वेद: | सूक्त: 54
स घा॒ राजा॒ सत्प॑तिः शूशुव॒ज्जनो॑ रा॒तह॑व्यः॒ प्रति॒ यः शास॒मिन्व॑ति । उ॒क्था वा॒ यो अ॑भिगृ॒णाति॒ राध॑सा॒ दानु॑रस्मा॒ उप॑रा पिन्वते दि॒वः ॥ (७)
वे ही यजमान सुशोभित होकर सज्जनों के पालन के साथ-साथ अपनी भी वृद्धि करते हैं, जो इंद्र को हव्य प्रदान करके उनकी स्तुति करते हैं. अभिमत फलदाता इंद्र ऐसे ही लोगों के लिए आकाश से मेघों द्वारा वर्षा करते हैं. (७)
They adorn the host and increase themselves along with obeying the gentlemen, who praise Indra by giving him a greeting. Indra, the giver of opinion, rains through the clouds from the sky for such people. (7)

ऋग्वेद (मंडल 1)

ऋग्वेद: | सूक्त: 54
अस॑मं क्ष॒त्रमस॑मा मनी॒षा प्र सो॑म॒पा अप॑सा सन्तु॒ नेमे॑ । ये त॑ इन्द्र द॒दुषो॑ व॒र्धय॑न्ति॒ महि॑ क्ष॒त्रं स्थवि॑रं॒ वृष्ण्यं॑ च ॥ (८)
इंद्र का बल एवं बुद्धि अतुलनीय है. हे इंद्र! जो सोमपायी यजमान अपने यज्ञकर्म द्वारा तुम्हारा महान्‌ बल एवं स्थूल पौरुष बढ़ाते हैं, उनकी उन्नति हो. (८)
Indra's strength and intellect are incomparable. O Indra! May the somapayi hosts, who increase your great strength and gross virility through their yajnakarma, be uplifted. (8)
Page 1 of 2Next →