ऋग्वेद (मंडल 2)
यः पु॒ष्पिणी॑श्च प्र॒स्व॑श्च॒ धर्म॒णाधि॒ दाने॒ व्य१॒॑वनी॒रधा॑रयः । यश्चास॑मा॒ अज॑नो दि॒द्युतो॑ दि॒व उ॒रुरू॒र्वाँ अ॒भितः॒ सास्यु॒क्थ्यः॑ ॥ (७)
हे इंद्र! तुम अपने वर्षारूपी कर्म द्वारा खेतों में फूल और फल वाली ओषधियों को धारण करते हो. तुमने सूर्य की अनेक किरणों को उत्पन्न किया है एवं स्वयं महान् बनकर चारों ओर बड़े-बड़े प्राणियों को जन्म दिया है. तुम स्तुति के योग्य हो. (७)
O Indra! You wear flowers and fruit-bearing herbs in the fields through your rainy deeds. You have created many rays of the sun and have become great yourself and have given birth to great beings all around. You are worthy of praise. (7)