ऋग्वेद (मंडल 2)
व॒यं ते॒ वय॑ इन्द्र वि॒द्धि षु णः॒ प्र भ॑रामहे वाज॒युर्न रथ॑म् । वि॒प॒न्यवो॒ दीध्य॑तो मनी॒षा सु॒म्नमिय॑क्षन्त॒स्त्वाव॑तो॒ नॄन् ॥ (१)
हे इंद्र! जिस प्रकार अन्न का इच्छुक व्यक्ति गाड़ी बनाता है, उसी प्रकार हम तुम्हारे लिए सोमरस पर्याप्त मात्रा में तैयार करते हैं. तुम हमें भली प्रकार जानते हो. हम अपनी स्तुतियों से तुम्हें दीप्यमान करते हैं एवं सुख की याचना करते हैं. (१)
O Indra! Just as a person desirous of food makes a cart, so we prepare a fewras for you in sufficient quantity. You know us well. We brighten you with our praises and ask for happiness. (1)