ऋग्वेद (मंडल 2)
देव॑ बर्हि॒र्वर्ध॑मानं सु॒वीरं॑ स्ती॒र्णं रा॒ये सु॒भरं॒ वेद्य॒स्याम् । घृ॒तेना॒क्तं व॑सवः सीदते॒दं विश्वे॑ देवा आदित्या य॒ज्ञिया॑सः ॥ (४)
हे कुशरूप, तेजस्वी, नित्य बढ़ने वाले एवं वीर पुत्रदाता अग्नि! हमें धन देने के लिए वेदी पर फैल जाओ! हे वसुओ, विश्वेदेव एवं यज्ञ के योग्य आदित्यो! तुम घी से गीले किए गए कुश पर बैठो. (४)
O evil, brilliant, ever-growing and heroic son-giving agni! Spread out on the altar to give us money! O Vasuo, Vishvadev and Adityas worthy of the yajna! You sit on the cushions wet with ghee. (4)