ऋग्वेद (मंडल 2)
द॒ध॒न्वे वा॒ यदी॒मनु॒ वोच॒द्ब्रह्मा॑णि॒ वेरु॒ तत् । परि॒ विश्वा॑नि॒ काव्या॑ ने॒मिश्च॒क्रमि॑वाभवत् ॥ (३)
यज्ञ में हवि धारण करता हुआ अध्वर्यु जो मंत्र बोलता है अथवा बुद्धिमान् ऋत्विज् जो भी कर्म करता है, उन्हें अग्नि उसी प्रकार धारण करते हैं, जिस प्रकार पहिए को नाभि धारण करती है. (३)
In the yajna, the adhvaryu who speaks the mantra or whatever action the wise Ritvij does, the agni wears them in the same way as the navel wears the wheel. (3)