ऋग्वेद (मंडल 4)
अ॒स्य श्रेष्ठा॑ सु॒भग॑स्य सं॒दृग्दे॒वस्य॑ चि॒त्रत॑मा॒ मर्त्ये॑षु । शुचि॑ घृ॒तं न त॒प्तमघ्न्या॑याः स्पा॒र्हा दे॒वस्य॑ मं॒हने॑व धे॒नोः ॥ (६)
परम सेवनीय अग्नि की उत्तम कृपा मनुष्यों में उसी प्रकार नितांत पूज्य है, जिस प्रकार दूध की कामना करने वाले देवों के लिए गाय का शुद्ध, तरल एवं गरम दूध अथवा गाय मांगने वाले मनुष्य के लिए दुधारू गाय. (६)
The best grace of the most edible agni is revered in humans in the same way as the pure, liquid and hot milk of the cow for the gods who wish for milk, or the milch cow for the man who asks for cow. (6)