ऋग्वेद (मंडल 4)
शि॒वा नः॑ स॒ख्या सन्तु॑ भ्रा॒त्राग्ने॑ दे॒वेषु॑ यु॒ष्मे । सा नो॒ नाभिः॒ सद॑ने॒ सस्मि॒न्नूध॑न् ॥ (८)
हे द्योतमान अग्नि! तुम्हारे प्रति हमारी मित्रता एवं बंधुत्व भाव कल्याणकारी हो. यह भावना देवस्थानों एवं समस्त यज्ञों में हमारा आधार हो. (८)
O agni! May our friendship and fraternity towards you be beneficial. May this spirit be our basis in the devasthans and all the yagnas. (8)