ऋग्वेद (मंडल 4)
य॒ता सु॑जू॒र्णी रा॒तिनी॑ घृ॒ताची॑ प्रदक्षि॒णिद्दे॒वता॑तिमुरा॒णः । उदु॒ स्वरु॑र्नव॒जा नाक्रः प॒श्वो अ॑नक्ति॒ सुधि॑तः सु॒मेकः॑ ॥ (३)
मायारहित, विशिष्ट-ज्ञान वाले, तारों से भरे हुए आकाश के समान चिनगारियों से युक्त एवं समस्त यज्ञों की वृद्धि करने वाले अग्नि को देखते हुए ऋत्विजों ने उन्हें प्रत्येक यज्ञशाला में ग्रहण किया. (३)
Seeing the agni that was maya-free, of idiosyncratic, with stars-like sparks and increasing all the yagnas, the Ritvijas received them in each yajnashala. (3)