हरि ॐ

ऋग्वेद (Rigved)

ऋग्वेद 5.11.2

मंडल 5 → सूक्त 11 → श्लोक 2 - संस्कृत मंत्र, हिंदी अर्थ और English translation

ऋग्वेद (मंडल 5)

ऋग्वेद: | सूक्त: 11
य॒ज्ञस्य॑ के॒तुं प्र॑थ॒मं पु॒रोहि॑तम॒ग्निं नर॑स्त्रिषध॒स्थे समी॑धिरे । इन्द्रे॑ण दे॒वैः स॒रथं॒ स ब॒र्हिषि॒ सीद॒न्नि होता॑ य॒जथा॑य सु॒क्रतुः॑ ॥ (२)
ऋत्विजों ने यज्ञ का संकेत करने वाले, यजमानों द्वारा सर्वश्रेष्ठ स्थान में स्थापित एवं इंद्र आदि के समान अग्नि को तीन स्थानों में प्रज्वलित किया था. उत्तम कर्म वाले एवं देवों को बुलाने वाले अग्नि बिछे हुए कुशों पर यज्ञ पूरा करने के लिए बैठे थे. (२)
The Ritvijas had ignited the agni in three places, which signified the yajna, installed by the hosts in the best place and similar to Indra etc. Those with good deeds and those who called the gods sat on the agni-filled kushas to complete the yajna. (2)