ऋग्वेद (मंडल 5)
यस्ते॑ अग्ने॒ नम॑सा य॒ज्ञमीट्ट॑ ऋ॒तं स पा॑त्यरु॒षस्य॒ वृष्णः॑ । तस्य॒ क्षयः॑ पृ॒थुरा सा॒धुरे॑तु प्र॒सर्स्रा॑णस्य॒ नहु॑षस्य॒ शेषः॑ ॥ (६)
हे दीप्तिशाली एवं कामवर्षी अग्नि! तुम्हारी स्तुति करने वाला तथा तुम्हारे निमित्त यज्ञ करने वाला यजमान विस्तृत घर प्राप्त करता है. तुम्हारा सेवक कामना पूर्ण करने वाला पुत्र प्राप्त करता है. (६)
O glorious and lustrous agni! The host who praises you and performs yajna for you receives a wide house. Your servant receives a wish-fulfilling son. (6)