हरि ॐ

ऋग्वेद (Rigved)

ऋग्वेद 5.8.2

मंडल 5 → सूक्त 8 → श्लोक 2 - संस्कृत मंत्र, हिंदी अर्थ और English translation

ऋग्वेद (मंडल 5)

ऋग्वेद: | सूक्त: 8
त्वाम॑ग्ने॒ अति॑थिं पू॒र्व्यं विशः॑ शो॒चिष्के॑शं गृ॒हप॑तिं॒ नि षे॑दिरे । बृ॒हत्के॑तुं पुरु॒रूपं॑ धन॒स्पृतं॑ सु॒शर्मा॑णं॒ स्वव॑सं जर॒द्विष॑म् ॥ (२)
हे अतिथि के समान पूज्य, प्राचीन, दीप्तज्वालरूपी केशों वाले, अनेक रूपों वाले, धनदाता, सुख देने वाले, भली-भांति रक्षा करने वाले एवं पुराने वृक्षों को नष्ट करने वाले अग्नि! यजमानों ने तुम्हें गृहपति के रूप में स्थान दिया है. (२)
O guest-like worshiper, ancient, bright-tongued haired, many forms, rich, pleasing, well-guarding and destroying old trees! Hosts have given you the place as homeowner. (2)