ऋग्वेद (मंडल 6)
अ॒ग्ना यो मर्त्यो॒ दुवो॒ धियं॑ जु॒जोष॑ धी॒तिभिः॑ । भस॒न्नु ष प्र पू॒र्व्य इषं॑ वुरी॒ताव॑से ॥ (१)
जो मनुष्य स्तुतियों के साथ अग्नि की यज्ञकर्म से सेवा करता है, वह अन्य लोगों की अपेक्षा प्रतापी बनकर अपनी संतान की रक्षा के लिए शत्रुओं का धन प्राप्त करता है. (१)
The man who serves with praises through the sacrificial act of agni, he becomes more majestic than other people and receives the wealth of enemies to protect his offspring. (1)