ऋग्वेद (मंडल 6)
तस्य॑ व॒यं सु॑म॒तौ य॒ज्ञिय॒स्यापि॑ भ॒द्रे सौ॑मन॒से स्या॑म । स सु॒त्रामा॒ स्ववा॒ँ इन्द्रो॑ अ॒स्मे आ॒राच्चि॒द्द्वेषः॑ सनु॒तर्यु॑योतु ॥ (१३)
हम यज्ञपात्र इंद्र की शोभन-अनुग्रह-बुद्धि एवं कल्याणकारी-मित्रता-भाव के पात्र बनें शोभन, रक्षक और धनवान् इंद्र द्वेष करने वालों को हमसे दूर करें. (१३)
Let us be the characters of shobhan-grace-intellect and welfare-friendship-spirit of yajnapatra Indra, remove those who hate Shobhan, rakshak and wealthy Indra from us. (13)