ऋग्वेद (मंडल 7)
अ॒स्य दे॒वस्य॑ सं॒सद्यनी॑के॒ यं मर्ता॑सः श्ये॒तं ज॑गृ॒भ्रे । नि यो गृभं॒ पौरु॑षेयीमु॒वोच॑ दु॒रोक॑म॒ग्निरा॒यवे॑ शुशोच ॥ (३)
मनुष्य शुभ्र अग्नि को प्रमुख स्थान में गृहीत करते हैं. अग्नि मनुष्यों द्वारा की गई सेवा स्वीकार करते हैं. वे मानवों के कल्याण के लिए इस प्रकार दीप्त होते हैं कि शत्रु उन्हें सहन नहीं कर पाते. (३)
Humans assume the white agni in the main place. Fire accepts service rendered by humans. They are so bright for the welfare of human beings that the enemy cannot tolerate them. (3)