ऋग्वेद (मंडल 9)
इन्द्र॑स्य॒ हार्दि॑ सोम॒धान॒मा वि॑श समु॒द्रमि॑व॒ सिन्ध॑वः । जुष्टो॑ मि॒त्राय॒ वरु॑णाय वा॒यवे॑ दि॒वो वि॑ष्ट॒म्भ उ॑त्त॒मः ॥ (१६)
हे मित्र, वरुण और वायु के लिए पर्याप्त, स्वर्ग के धारणकर्तता, उत्तम एवं इंद्र के प्रिय सोम! नदियां जिस प्रकार सागर में प्रवेश करती हैं, उसी प्रकार तुम द्रोणकलश में प्रवेश करो. (१६)
O friend, enough for Varuna and the wind, the possessor of heaven, the best and the beloved of Indra, Mon! Just as rivers enter the ocean, so you enter the Dronakalash. (16)