हरि ॐ

ऋग्वेद (Rigved)

ऋग्वेद 1.117.5

मंडल 1 → सूक्त 117 → श्लोक 5 - संस्कृत मंत्र, हिंदी अर्थ और English translation

ऋग्वेद (मंडल 1)

ऋग्वेद: | सूक्त: 117
सु॒षु॒प्वांसं॒ न निरृ॑तेरु॒पस्थे॒ सूर्यं॒ न द॑स्रा॒ तम॑सि क्षि॒यन्त॑म् । शु॒भे रु॒क्मं न द॑र्श॒तं निखा॑त॒मुदू॑पथुरश्विना॒ वन्द॑नाय ॥ (५)
हे दर्शनीयो! तुमने धरती के ऊपर सोए हुए मनुष्य के समान पड़े हुए, कुएं में पड़ने वाले सूर्यबिंब के समान तेजस्वी एवं शोभन स्वर्ण निर्मित अलंकार के समान दर्शनीय कूपपतित वंदन ऋषि को बाहर निकाला था. (५)
O you see! You brought out the sage, who was lying like a man sleeping on the earth, as bright as the sun's image falling in the well, and as a magnificent golden ornament. (5)