ऋग्वेद (मंडल 1)
यु॒वोर॑श्विना॒ वपु॑षे युवा॒युजं॒ रथं॒ वाणी॑ येमतुरस्य॒ शर्ध्य॑म् । आ वां॑ पति॒त्वं स॒ख्याय॑ ज॒ग्मुषी॒ योषा॑वृणीत॒ जेन्या॑ यु॒वां पती॑ ॥ (५)
हे अश्चिनीकुमारो! तुम्हारे प्रशंसनीय अश्च तुम्हारे जुड़े हुए रथ को दौड़ की सीमा, सूर्य तक सबसे पहले ले गए थे. जीती हुई कुमारी ने मित्रता के लिए आकर कहा था कि मैं तुम्हारी पत्नी हूं और तुम्हें अपना पति बना लिया. (५)
O aschinikumaro! Your admirable ass were taken to your connected chariot first to the limit of the race, to the sun. The winning virgin came for friendship and said that I am your wife and made you your husband. (5)