ऋग्वेद (मंडल 1)
वृष॑न्निन्द्र वृष॒पाणा॑स॒ इन्द॑व इ॒मे सु॒ता अद्रि॑षुतास उ॒द्भिद॒स्तुभ्यं॑ सु॒तास॑ उ॒द्भिदः॑ । ते त्वा॑ मन्दन्तु दा॒वने॑ म॒हे चि॒त्राय॒ राध॑से । गी॒र्भिर्गि॑र्वाहः॒ स्तव॑मान॒ आ ग॑हि सुमृळी॒को न॒ आ ग॑हि ॥ (६)
हे कामवर्षक इंद्र! पाषाण खंडों द्वारा कुचलकर निचोड़ा गया यह सोम तुम्हारे पीने के लिए ही तैयार किया गया है. पर्वत पर उत्पन्न होने वाला सोम तुम्हारे निमित्त निचोड़ा गया है. अभिमतदान, महान् एवं विचित्र धन प्राप्ति के लिए दिया गया सोम तुम्हें प्रसन्न करे. हे स्तुतिधारक! हमारी स्तुतियां सुनकर हमारे ऊपर प्रसन्न होते हुए आओ. (६)
O workman Indra! Crushed by the stone segments this mon has been prepared for your drinking only. The mon originating on the mountain has been squeezed for you. May the gift of opinion, given for the attainment of great and strange wealth please you. O you of praise! Come, delighting us to hear our praises. (6)