हरि ॐ

ऋग्वेद (Rigved)

ऋग्वेद (मंडल 1)

ऋग्वेद: | सूक्त: 58
नू चि॑त्सहो॒जा अ॒मृतो॒ नि तु॑न्दते॒ होता॒ यद्दू॒तो अभ॑वद्वि॒वस्व॑तः । वि साधि॑ष्ठेभिः प॒थिभी॒ रजो॑ मम॒ आ दे॒वता॑ता ह॒विषा॑ विवासति ॥ (१)
अतिशय बल की सहायता से उत्पन्न एवं अमर अग्नि जलाने में समर्थ है. देवताओं का आह्वान करने वाले अग्नि जिस समय यजमान का हव्य ले जाने के लिए दूत बने थे, उस समय अग्नि ने उचित मार्ग से जाकर अंतरिक्ष लोक बनाया था. अग्नि यज्ञ में हव्य दान करके देवों की सेवा करते हैं. (१)
Produced with the help of excessive force and capable of burning immortal agni. At the time when Agni, who invoked the gods, became an angel to carry the host's havya, agni went through the proper way and made space loka. They serve the gods by donating a havya in the agni yajna. (1)

ऋग्वेद (मंडल 1)

ऋग्वेद: | सूक्त: 58
आ स्वमद्म॑ यु॒वमा॑नो अ॒जर॑स्तृ॒ष्व॑वि॒ष्यन्न॑त॒सेषु॑ तिष्ठति । अत्यो॒ न पृ॒ष्ठं प्रु॑षि॒तस्य॑ रोचते दि॒वो न सानु॑ स्त॒नय॑न्नचिक्रदत् ॥ (२)
जरारहित अग्नि अपने तृणगुल्म आदि खाद्य पदार्थ को अपनी दाहकशक्ति के द्वारा अपने में मिलाकर एवं भक्षण करके शीघ्र ही बहुत से काठों पर चढ़ गए. जलाने के लिए इधर-उधर जाने वाली अग्नि की ऊंची ज्वालाएं गतिशील अश्व के समान तथा आकाश स्थित उन्नत एवं गंभीर शब्दकारी मेघ के समान शोभा पाती हैं. (२)
The gingerless agni quickly climbed on to many of the woods by mixing and feeding its food items like trinitude etc. through its burning power. The high flames of agni that go around to burn are adorned like a moving horse and like the advanced and severe word-making cloud in the sky. (2)

ऋग्वेद (मंडल 1)

ऋग्वेद: | सूक्त: 58
क्रा॒णा रु॒द्रेभि॒र्वसु॑भिः पु॒रोहि॑तो॒ होता॒ निष॑त्तो रयि॒षाळम॑र्त्यः । रथो॒ न वि॒क्ष्वृ॑ञ्जसा॒न आ॒युषु॒ व्या॑नु॒षग्वार्या॑ दे॒व ऋ॑ण्वति ॥ (३)
अग्नि हव्य का वहन करते हुए रुद्रों तथा वसुओं के सम्मुख स्थान प्राप्त कर चुके हैं एवं देवों का आह्वान करने के निमित्त यज्ञों में उपस्थित रहते हैं. शत्रुओं का धन जीतने वाले, मरणरहित एवं दीप्तिमान्‌ अग्नि यजमानों द्वारा स्तुत होकर रथ की भांति चलते हुए प्रजाओं के पास पहुंचते हैं एवं बार-बार श्रेष्ठ धन प्रदान करते हैं. (३)
Agni has taken a place in front of the Rudras and Vasus while carrying the havan and is present in the yagnas to invoke the gods. Those who conquer the wealth of enemies, dieless and brightly worship by the agni hosts, walk like chariots and reach out to the people and repeatedly give the best wealth. (3)

ऋग्वेद (मंडल 1)

ऋग्वेद: | सूक्त: 58
वि वात॑जूतो अत॒सेषु॑ तिष्ठते॒ वृथा॑ जु॒हूभिः॒ सृण्या॑ तुवि॒ष्वणिः॑ । तृ॒षु यद॑ग्ने व॒निनो॑ वृषा॒यसे॑ कृ॒ष्णं त॒ एम॒ रुश॑दूर्मे अजर ॥ (४)
वायु द्वारा प्रेरित अग्नि महान्‌ शब्द करते हुए अपनी जलती हुई एवं तीव्र ज्वालाओं के द्वारा अनायास ही पेड़ों को जला देते हैं. हे अग्नि देव! तुम जिस समय वन के वृक्षों को जलाने के लिए सांड़ के समान उतावले होते हो, उस समय तुम्हारे गमन का मार्ग काला पड़ जाता है. हे अग्नि! तुम दीप्त ज्वालाओं वाले एवं जरारहित हो. (४)
The agni induced by the wind burns the trees spontaneously with its burning and intense flames, while using the word great. O God of agni! At the time when you are as hasty as a bull to burn the forest trees, your path of passage becomes black. O agni! You are light-lit and without flames. (4)

ऋग्वेद (मंडल 1)

ऋग्वेद: | सूक्त: 58
तपु॑र्जम्भो॒ वन॒ आ वात॑चोदितो यू॒थे न सा॒ह्वाँ अव॑ वाति॒ वंस॑गः । अ॒भि॒व्रज॒न्नक्षि॑तं॒ पाज॑सा॒ रजः॑ स्था॒तुश्च॒रथं॑ भयते पत॒त्रिणः॑ ॥ (५)
वायु द्वारा प्रेरित अग्नि शिखारूपी आयुध धारण कर लेता है तथा महान्‌ तेज के कारण गीले वृक्षों के रस पर आक्रमण करके सर्वत्र व्याप्त होता हुआ प्राणियों को उसी प्रकार पराजित कर देता है, जिस प्रकार गायों के झुंड में सांड़ पहुंच जाता है. समस्त स्थावर एवं जंगम अग्नि से डरते हैं. (५)
The agni induced by the wind takes on the crestial armament and due to the great speed, attacks the juice of wet trees and defeats the animals that are everywhere, in the same way as the bull reaches the herd of cows. All are afraid of agni and agni. (5)

ऋग्वेद (मंडल 1)

ऋग्वेद: | सूक्त: 58
द॒धुष्ट्वा॒ भृग॑वो॒ मानु॑षे॒ष्वा र॒यिं न चारुं॑ सु॒हवं॒ जने॑भ्यः । होता॑रमग्ने॒ अति॑थिं॒ वरे॑ण्यं मि॒त्रं न शेवं॑ दि॒व्याय॒ जन्म॑ने ॥ (६)
हे अग्नि! मनुष्यों के बीच में भृगु ऋषि ने दिव्य जन्म प्राप्त करने के लिए तुम्हें उसी प्रकार धारण किया था, जिस प्रकार लोग उत्तम धन को संभाल कर रखते हैं. तुम लोगों का आह्वान सरलता से सुन लेते हो एवं देवों का आह्वान करने वाले हो. तुम यज्ञस्थान में अतिथि के समान पूजनीय एवं मित्र के समान सुख देने वाले हो. (६)
O agni! In the midst of human beings, sage Bhrigu held you to attain divine birth in the same way that people handle the best wealth. You can easily listen to the call of the people and you are the ones who call upon the gods. You are revered as a guest in the yajnasthan and give as much happiness as a friend. (6)

ऋग्वेद (मंडल 1)

ऋग्वेद: | सूक्त: 58
होता॑रं स॒प्त जु॒ह्वो॒३॒॑ यजि॑ष्ठं॒ यं वा॒घतो॑ वृ॒णते॑ अध्व॒रेषु॑ । अ॒ग्निं विश्वे॑षामर॒तिं वसू॑नां सप॒र्यामि॒ प्रय॑सा॒ यामि॒ रत्न॑म् ॥ (७)
आह्वान करने वाले सात ऋत्विज्‌ यज्ञों में सर्वश्रेष्ठ यजनीय एवं देवों के आह्वानकर्ता जिस अग्नि का वरण करते हैं, समस्त संपत्तियां देने वाले उसी अग्नि की सेवा मैं हव्य के द्वारा कर रहा हूं तथा उस अग्नि से रमणीय धन की याचना कर रहा हूं. (७)
In the seven ritvaij yajnas that invoke the best Yajna and the invokers of the gods, the agni that is chosen, the same agni that gives all the possessions, I am serving through the havya and i am asking for delightful wealth from that agni. (7)

ऋग्वेद (मंडल 1)

ऋग्वेद: | सूक्त: 58
अच्छि॑द्रा सूनो सहसो नो अ॒द्य स्तो॒तृभ्यो॑ मित्रमहः॒ शर्म॑ यच्छ । अग्ने॑ गृ॒णन्त॒मंह॑स उरु॒ष्योर्जो॑ नपात्पू॒र्भिराय॑सीभिः ॥ (८)
हे अग्नि! तुम बल प्रयोग द्वारा अरणि से उत्पन्न एवं अनुकूल प्रकाश वाले हो. तुम हमें अनवरत सुख प्रदान करो. हे अन्नपुत्र अग्नि! लोहे के समान दृढ़तर पालन साधनों द्वारा अपने स्तोता की रक्षा करके उसे पापों से मुक्त करो. (८)
O agni! You are produced from the aura by the use of force and have favorable light. You give us eternal happiness. O son of food, agni! Free your stotha from sins by protecting her by means of following it as hard as iron. (8)
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