ऋग्वेद (मंडल 1)
क्रत्वा॑ म॒हाँ अ॑नुष्व॒धं भी॒म आ वा॑वृधे॒ शवः॑ । श्रि॒य ऋ॒ष्व उ॑पा॒कयो॒र्नि शि॒प्री हरि॑वान्दधे॒ हस्त॑यो॒र्वज्र॑माय॒सम् ॥ (४)
यज्ञकर्म द्वारा महान् एवं शत्रुओं को भयंकर, सोमरूपी अन्न का भक्षण करके अपना बल बढ़ाने वाले, दर्शनीय नासिका तथा हरि नाम के अश्रों से युक्त इंद्र हमें संपत्ति देने के लिए अपने समीपवर्ती बाहुओं में लौहनिर्मित वज्र धारण करते हैं. (४)
Indra, who strengthens his strength by devouring the great and the enemies with the fierce, somrupi food, with the visible nostrils and the ashes of hari, wears an iron-made vajra in his adjacent arms to give us wealth. (4)