ऋग्वेद (मंडल 1)
धन्व॒न्स्रोतः॑ कृणुते गा॒तुमू॒र्मिं शु॒क्रैरू॒र्मिभि॑र॒भि न॑क्षति॒ क्षाम् । विश्वा॒ सना॑नि ज॒ठरे॑षु धत्ते॒ऽन्तर्नवा॑सु चरति प्र॒सूषु॑ ॥ (१०)
अग्नि आकाश में गमनशील जलसमूह को प्रवाह का रूप देते एवं उसी निर्मल किरणों वाले जलसमूह से धरती को भिगोते हैं. वे जठर में संपूर्ण अन्नों को धारण करते हैं, इसीलिए वर्षा के पश्चात् उत्पन्न नवीन फसलों के भीतर रहते हैं. (१०)
Fire gives the form of a flow to the water body moving in the sky and soaks the earth with the same group of pure rays of water. They hold entire grains in the stomach, so they live within the new crops produced after the rains. (10)