हरि ॐ

ऋग्वेद (Rigved)

ऋग्वेद 10.88.16

मंडल 10 → सूक्त 88 → श्लोक 16 - संस्कृत मंत्र, हिंदी अर्थ और English translation

ऋग्वेद (मंडल 10)

ऋग्वेद: | सूक्त: 88
द्वे स॑मी॒ची बि॑भृत॒श्चर॑न्तं शीर्ष॒तो जा॒तं मन॑सा॒ विमृ॑ष्टम् । स प्र॒त्यङ्विश्वा॒ भुव॑नानि तस्था॒वप्र॑युच्छन्त॒रणि॒र्भ्राज॑मानः ॥ (१६)
परस्पर संगत द्यावा-पृथिवी में विचरण करते हुए सबसे शीर्षरूप आदित्य से उत्पन्न व स्तुतियों से संस्कृत अग्नि को धारण करने वाले, प्रभावहीन, शीघ्रता करने वाले एवं तेजस्वी वैश्वानर सभी लोकों के सम्मुख ठहरते हैं. (१६)
While moving in the inter-compatible Dyava-Prithvivi, the most prominent form is born of Aditya and who possesses sanskrit agni from the praises, the ineffective, the hasty and the bright Vaishvanar, stand before all the people. (16)