हरि ॐ

ऋग्वेद (Rigved)

ऋग्वेद (मंडल 2)

ऋग्वेद: | सूक्त: 13
ऋ॒तुर्जनि॑त्री॒ तस्या॑ अ॒पस्परि॑ म॒क्षू जा॒त आवि॑श॒द्यासु॒ वर्ध॑ते । तदा॑ह॒ना अ॑भवत्पि॒प्युषी॒ पयों॒ऽशोः पी॒यूषं॑ प्रथ॒मं तदु॒क्थ्य॑म् ॥ (१)
वर्षा ऋतु सोम की जननी है. वह जिस जल से उत्पन्न होता है, जिसमें बढ़ता है, उसीमें बाद में प्रविष्ट हो जाता है. जो सोम जल का अंश धारण करता हुआ बढ़ता है, वही निचोड़ने योग्य है एवं उसीका रस रूपी अंश इंद्र का पहला भाग है. (१)
The rainy season is the mother of Som. It enters the water from which it grows, later into it. The one who grows by holding the part of Som water is the same to be squeezed and its juice-like fraction is the first part of Indra. (1)

ऋग्वेद (मंडल 2)

ऋग्वेद: | सूक्त: 13
स॒ध्रीमा य॑न्ति॒ परि॒ बिभ्र॑तीः॒ पयो॑ वि॒श्वप्स्न्या॑य॒ प्र भ॑रन्त॒ भोज॑नम् । स॒मा॒नो अध्वा॑ प्र॒वता॑मनु॒ष्यदे॒ यस्ताकृ॑णोः प्रथ॒मं सास्यु॒क्थ्यः॑ ॥ (२)
जल धारण करने वाली नदियां आपस में मिलकर चारों ओर बह रही हैं एवं जल के स्वामी सागर को भोजन पहुंचाती हैं. नीचे की ओर बहने वाले जलों का रास्ता एक समान है. जिस इंद्र ने प्राचीन काल में ये सब काम किए हैं, वह प्रशंसा के योग्य है. (२)
The rivers that hold water are flowing around with each other and deliver food to the ocean, the lord of the water. The path of the waters flowing downwards is uniform. The Indra who has done all these things in ancient times is worthy of praise. (2)

ऋग्वेद (मंडल 2)

ऋग्वेद: | सूक्त: 13
अन्वेको॑ वदति॒ यद्ददा॑ति॒ तद्रू॒पा मि॒नन्तद॑पा॒ एक॑ ईयते । विश्वा॒ एक॑स्य वि॒नुद॑स्तितिक्षते॒ यस्ताकृ॑णोः प्रथ॒मं सास्यु॒क्थ्यः॑ ॥ (३)
यजमान दान करता है. होता उसका वर्णन करता है. अध्वर्यु रूपधारी पशुओं की हिंसा करता हुआ इसी काम के लिए सभी जगह जाता है. ब्रह्मा उसके सब कर्मदोषों का प्रायश्चित्त करता है. हे इंद्र! पहले तुमने ये सब कर्म किए हैं, इसलिए तुम प्रशंसनीय हो. (३)
The host donates. Would describe him. The adhwaryu goes everywhere for the same purpose while committing violence against the animals of the form. Brahma atones for all his karmas. O Indra! You have done all these deeds before, so you are praiseworthy. (3)

ऋग्वेद (मंडल 2)

ऋग्वेद: | सूक्त: 13
प्र॒जाभ्यः॑ पु॒ष्टिं वि॒भज॑न्त आसते र॒यिमि॑व पृ॒ष्ठं प्र॒भव॑न्तमाय॒ते । असि॑न्व॒न्दंष्ट्रैः॑ पि॒तुर॑त्ति॒ भोज॑नं॒ यस्ताकृ॑णोः प्रथ॒मं सास्यु॒क्थ्यः॑ ॥ (४)
हे इंद्र! जिस प्रकार घर आए हुए अतिथियों को धन का विभाग किया जाता है, उसी प्रकार गृह में भी लोग तुम्हारे द्वारा दिया हुआ धन प्रजाओं में बांटते हैं. लोग पिता के द्वारा दिया हुआ भोजन दांतों से भक्षण करते है. तुमने पूर्वकाल में ये सब कार्य किए हैं, इसलिए तुम स्तुति के योग्य हो. (४)
O Indra! Just as the department of money is done to the guests who come home, in the same way people in the house also distribute the money given by you among the people. People eat the food given by the father with their teeth. You have done all these things in the past, so you are worthy of praise. (4)

ऋग्वेद (मंडल 2)

ऋग्वेद: | सूक्त: 13
अधा॑कृणोः पृथि॒वीं सं॒दृशे॑ दि॒वे यो धौ॑ती॒नाम॑हिह॒न्नारि॑णक्प॒थः । तं त्वा॒ स्तोमे॑भिरु॒दभि॒र्न वा॒जिनं॑ दे॒वं दे॒वा अ॑जन॒न्सास्यु॒क्थ्यः॑ ॥ (५)
हे इंद्र! तुमने धरती को सूर्य के लिए दर्शनीय बनाया है एवं नदियों के मार्ग को गमन योग्य बनाया है. हे वृत्रनाशक इंद्र! जिस प्रकार जल से घोड़े को संतुष्ट करते हैं, उसी प्रकार स्तोतागण स्तुतियों से तुम्हें बढ़ाते हैं. तुम स्तुति के योग्य हो. (५)
O Indra! You have made the earth visible to the sun and you have made the path of the rivers transmissible. O the conqueror Indra! Just as they satisfy the horse with water, so the Psalms increase you with praises. You are worthy of praise. (5)

ऋग्वेद (मंडल 2)

ऋग्वेद: | सूक्त: 13
यो भोज॑नं च॒ दय॑से च॒ वर्ध॑नमा॒र्द्रादा शुष्कं॒ मधु॑मद्दु॒दोहि॑थ । स शे॑व॒धिं नि द॑धिषे वि॒वस्व॑ति॒ विश्व॒स्यैक॑ ईशिषे॒ सास्यु॒क्थ्यः॑ ॥ (६)
हे इंद्र! तुम यजमान के लिए भोजन एवं बढ़ने वाला धन देते हो. तुम गांठों से सूखे हुए गेहूं आदि मधुर रस वाली फसलों का दोहन करते हो. तुम सेवा करने वाले यजमान को धन देते हो और संसार के एकमात्र स्वामी एवं प्रशंसा के योग्य हो. (६)
O Indra! You give food and money for the host. You exploit crops with sweet juices like dried wheat etc. with lumps. You give wealth to the serving host and are the only master of the world and worthy of praise. (6)

ऋग्वेद (मंडल 2)

ऋग्वेद: | सूक्त: 13
यः पु॒ष्पिणी॑श्च प्र॒स्व॑श्च॒ धर्म॒णाधि॒ दाने॒ व्य१॒॑वनी॒रधा॑रयः । यश्चास॑मा॒ अज॑नो दि॒द्युतो॑ दि॒व उ॒रुरू॒र्वाँ अ॒भितः॒ सास्यु॒क्थ्यः॑ ॥ (७)
हे इंद्र! तुम अपने वर्षारूपी कर्म द्वारा खेतों में फूल और फल वाली ओषधियों को धारण करते हो. तुमने सूर्य की अनेक किरणों को उत्पन्न किया है एवं स्वयं महान्‌ बनकर चारों ओर बड़े-बड़े प्राणियों को जन्म दिया है. तुम स्तुति के योग्य हो. (७)
O Indra! You wear flowers and fruit-bearing herbs in the fields through your rainy deeds. You have created many rays of the sun and have become great yourself and have given birth to great beings all around. You are worthy of praise. (7)

ऋग्वेद (मंडल 2)

ऋग्वेद: | सूक्त: 13
यो ना॑र्म॒रं स॒हव॑सुं॒ निह॑न्तवे पृ॒क्षाय॑ च दा॒सवे॑शाय॒ चाव॑हः । ऊ॒र्जय॑न्त्या॒ अप॑रिविष्टमा॒स्य॑मु॒तैवाद्य पु॑रुकृ॒त्सास्यु॒क्थ्यः॑ ॥ (८)
हे अनेक कर्मो के कर्ता इंद्र! तुमने दस्युओं के विनाश एवं यज्ञ में हव्य पाने के लिए नृमर के पुत्र सहवसु नामक असुर को मारने के लिए बलवान्‌ वज्र की चमकीली धार का मुंह उस ओर कर दिया. तुम स्तुति के योग्य हो. (८)
O Indra, the creator of many deeds! You turned the bright edge of balvan vajra towards the destruction of the bandits and to kill the asura named Sahavasu, the son of Narmer, to find a havan in the yagna. You are worthy of praise. (8)
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