ऋग्वेद (मंडल 2)
इन्धा॑नो अ॒ग्निं व॑नवद्वनुष्य॒तः कृ॒तब्र॑ह्मा शूशुवद्रा॒तह॑व्य॒ इत् । जा॒तेन॑ जा॒तमति॒ स प्र स॑र्सृते॒ यंयं॒ युजं॑ कृणु॒ते ब्रह्म॑ण॒स्पतिः॑ ॥ (१)
यज्ञ अग्नि को प्रज्वलित करता हुआ यजमान हिंसक शत्रुओं का नाश करे. स्तोत्र पढ़ने वाले एवं हव्य देने वाले यजमान वृद्धि प्राप्त करें. ब्रह्मणस्पति जिस-जिस यजमान को मित्र के रूप में स्वीकार कर लेते हैं, वह अपने पुत्र के पुत्र अर्थात् पौत्र से भी अधिक दिन तक जीता है. (१)
The host should destroy the violent enemies by igniting the yagna agni. Get the host enhancement of the psalms and the guests who read the hymn. The host whom the Brahmaspati accepts as a friend lives for more days than the son of his son, that is, his grandson. (1)