ऋग्वेद (मंडल 3)
पद्या॑ वस्ते पुरु॒रूपा॒ वपूं॑ष्यू॒र्ध्वा त॑स्थौ॒ त्र्यविं॒ रेरि॑हाणा । ऋ॒तस्य॒ सद्म॒ वि च॑रामि वि॒द्वान्म॒हद्दे॒वाना॑मसुर॒त्वमेक॑म् ॥ (१४)
धरती बहुत से स्थावर-जंगम रूपों से अपने को ढकती है एवं उन्नत होकर तीन लोकों को व्याप्त करने वाले सूर्य को चाटती हुई ठहरती है. मैं आदित्य के स्थान को जानता हुआ उनकी सेवा करता हूं. देवों का प्रमुख बल एक ही है. (१४)
The earth covers itself with many real-movable forms and becomes advanced and licks the sun that covers the three realms. I serve Aditya knowing his place. The principal force of the gods is the same. (14)