ऋग्वेद (मंडल 3)
आ रोद॑सी अपृणा॒ जाय॑मान उ॒त प्र रि॑क्था॒ अध॒ नु प्र॑यज्यो । दि॒वश्चि॑दग्ने महि॒ना पृ॑थि॒व्या व॒च्यन्तां॑ ते॒ वह्न॑यः स॒प्तजि॑ह्वाः ॥ (२)
हे अग्नि! तुम उत्पन्न होते ही धरती एवं आकाश को पूर्ण करो. हे यज्ञ के योग्य अग्नि! तुम अपने महत्त्व से धरती एवं आकाश से उत्तम हो. तुम्हारी अंशरूपी सात ज्वालाएं पूजित हों, (२)
O agni! When you are born, complete the earth and the sky. O agni worthy of yajna! You are superior to the earth and the sky by your importance. Let the seven flames of your part be worshipped, (2)