ऋग्वेद (मंडल 5)
स्तु॒हि भो॒जान्स्तु॑व॒तो अ॑स्य॒ याम॑नि॒ रण॒न्गावो॒ न यव॑से । य॒तः पूर्वा॑ँ इव॒ सखी॒ँरनु॑ ह्वय गि॒रा गृ॑णीहि का॒मिनः॑ ॥ (१६)
हे ऋषि! स्तुति करने वाले इस यजमान के यज्ञ में तुम फल देने वाले मरुतों की स्तुति करो. गाएं जैसे घास चरने के लिए चलती हुई प्रसन्न होती हैं, उसी प्रकार मरुत् प्रसन्न हों. तेज चलने वाले मरुतों को पुराने मित्र के समान बुलाओ एवं स्तुति की अभिलाषा करने वाले मरुतों की वचनों से स्तुति करो. (१६)
O sage! In the yajna of this psalmist, praise the priests who give fruit. Sing just as the grass is happy to move to graze, so be the divinely happy. Call the fast-moving maruts like old friends and praise the maruts who desire praise with the words. (16)