ऋग्वेद (मंडल 7)
इ॒यं दे॑व पु॒रोहि॑तिर्यु॒वभ्यां॑ य॒ज्ञेषु॑ मित्रावरुणावकारि । विश्वा॑नि दु॒र्गा पि॑पृतं ति॒रो नो॑ यू॒यं पा॑त स्व॒स्तिभिः॒ सदा॑ नः ॥ (१२)
हे मित्र व वरुणदेव! तुम्हारे यज्ञ में यह पूजारूपी स्तुति की गई है. इसे स्वीकार करके हमारे सभी दुःखों को नष्ट करो. (१२)
O friend and Varundev! In your yajna this pujaform has been praised. Destroy all our sorrows by accepting it. (12)