ऋग्वेद (मंडल 8)
प्र सो अ॑ग्ने॒ तवो॒तिभिः॑ सु॒वीरा॑भिस्तिरते॒ वाज॑भर्मभिः । यस्य॒ त्वं स॒ख्यमा॒वरः॑ ॥ (३०)
हे अग्नि! तुम जिस यजमान की मित्रता स्वीकार करते हो, वह तुम्हारे शोभन पुत्रों से युक्त रक्षाओं द्वारा वृद्धि पाता है. (३०)
O agni! The host whose friendship you accept is enhanced by the defenses of your adorned sons. (30)