ऋग्वेद (मंडल 1)
अ॒स्मे र॒यिं न स्वर्थं॒ दमू॑नसं॒ भगं॒ दक्षं॒ न प॑पृचासि धर्ण॒सिम् । र॒श्मीँरि॑व॒ यो यम॑ति॒ जन्म॑नी उ॒भे दे॒वानां॒ शंस॑मृ॒त आ च॑ सु॒क्रतुः॑ ॥ (११)
हे अग्नि! जिस प्रकार तुम हमें वरणीय एवं पूज्य धन देते हो, उसी प्रकार सबको आकृष्ट करने वाला, उत्साहित एवं विद्याधारण में कुशल पुत्र देते हो. अग्नि अपनी किरणों के समान ही अपने जन के आधार दोनों लोकों का विस्तार करते हैं. शोभनयज्ञकर्ता अग्नि हमारे यज्ञ में देवस्तुति को विस्तार देते हैं. (११)
O fire! Just as you give us wealth worth of choice and worship, so you give us a son who attracts everyone, is excited and skilled in education. Fire extends both realms to the base of its mass just like its rays. Shobhanayagyakara Agni expands the devastostuti in our yajna. (11)