हरि ॐ

ऋग्वेद (Rigved)

ऋग्वेद (मंडल 1)

ऋग्वेद: | सूक्त: 148
मथी॒द्यदीं॑ वि॒ष्टो मा॑त॒रिश्वा॒ होता॑रं वि॒श्वाप्सुं॑ वि॒श्वदे॑व्यम् । नि यं द॒धुर्म॑नु॒ष्या॑सु वि॒क्षु स्व१॒॑र्ण चि॒त्रं वपु॑षे वि॒भाव॑म् ॥ (१)
वायु ने लकड़ियों के भीतर प्रविष्ट होकर देवों के होता, नानारूप धारण करने वाले एवं समस्त देवों से संबंधित यज्ञकार्य करने में कुशल अग्नि को बढ़ाया. प्राचीन काल में देवों ने इसी अग्नि को ऋत्विज्‌ रूप में यज्ञसिद्धि के लिए धारण किया था. (१)
The wind entered the woods and increased the fire that was of the gods, the one who was different and skilled in performing the yajna work related to all the gods. In ancient times, the gods had held this fire in the form of ritvij as a ritual for the yajnasiddhi. (1)

ऋग्वेद (मंडल 1)

ऋग्वेद: | सूक्त: 148
द॒दा॒नमिन्न द॑दभन्त॒ मन्मा॒ग्निर्वरू॑थं॒ मम॒ तस्य॑ चाकन् । जु॒षन्त॒ विश्वा॑न्यस्य॒ कर्मोप॑स्तुतिं॒ भर॑माणस्य का॒रोः ॥ (२)
अग्नि को उत्तम हव्य या स्तुति देने वाले मुझको शत्रु नष्ट नहीं कर सकते. अग्नि मेरे उत्तम स्तोत्र की कामना करते हैं. स्तुति करने वाले यजमान द्वारा दिए गए हव्य स्वीकार करते हैं. (२)
Enemies can not destroy me, who give the best of havya or praise to agni. Agni wish me the best hymn and accept the words given by the yajman. (2)

ऋग्वेद (मंडल 1)

ऋग्वेद: | सूक्त: 148
नित्ये॑ चि॒न्नु यं सद॑ने जगृ॒भ्रे प्रश॑स्तिभिर्दधि॒रे य॒ज्ञिया॑सः । प्र सू न॑यन्त गृ॒भय॑न्त इ॒ष्टावश्वा॑सो॒ न र॒थ्यो॑ रारहा॒णाः ॥ (३)
यज्ञ योग्य यजमान जिस अग्नि को नित्य अग्निस्थान में धारण करते हैं एवं स्तुतियां करते हुए स्थापित करते हैं, उसी अग्नि को ऋत्विजों ने शीघ्रगामी एवं रथ में जुड़े हुए घोड़े के समान यज्ञ के निमित्त निर्मित किया. (३)
The fire which the yajna worthy hosts hold in the place of fire regularly and install it by praising, the same fire was created by the ritwijas for the yajna like a horse attached to the fast-moving and chariot. (3)

ऋग्वेद (मंडल 1)

ऋग्वेद: | सूक्त: 148
पु॒रूणि॑ द॒स्मो नि रि॑णाति॒ जम्भै॒राद्रो॑चते॒ वन॒ आ वि॒भावा॑ । आद॑स्य॒ वातो॒ अनु॑ वाति शो॒चिरस्तु॒र्न शर्या॑मस॒नामनु॒ द्यून् ॥ (४)
विनाशक अग्नि अपने शिखारूपी दांतों से विविध प्रकार के वृक्षों को नष्ट करते हैं एवं विविध प्रकाशयुक्त होकर दीप्त होते हैं. जिस प्रकार फेंकने वाले के पास से बाण शीघ्रतापूर्वक जाता है, उसी प्रकार वायु अग्नि का मित्र बनकर चलता है. (४)
Destructive fires destroy a variety of trees with their crestial teeth and are illuminated with various lights. Just as the arrow goes quickly from the thrower, so the air moves as a friend of fire. (4)

ऋग्वेद (मंडल 1)

ऋग्वेद: | सूक्त: 148
न यं रि॒पवो॒ न रि॑ष॒ण्यवो॒ गर्भे॒ सन्तं॑ रेष॒णा रे॒षय॑न्ति । अ॒न्धा अ॑प॒श्या न द॑भन्नभि॒ख्या नित्या॑स ईं प्रे॒तारो॑ अरक्षन् ॥ (५)
अरणि के मध्य में वर्तमान जिसको शत्रु दु:ख नहीं दे सकते, अंधा व्यक्ति भी उस अग्नि के महत्त्व को नष्ट नहीं कर सकता. अविचलभक्ति वाले यजमान यज्ञादि द्वारा उसी अग्नि को वृप्त करते एवं उसकी रक्षा करते हैं. (५)
In the midst of the arani, the present to whom the enemies cannot give sorrow, the blind person cannot destroy the importance of that fire. Hosts with unconvincing devotions kill and protect the same fire through yajnaadi. (5)